श्लोक :
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहंदनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।सकलगुणनिधानं वानराणामधीशंरघुपतिप्रियभक्तं(1) वातजातं नमामि॥
अर्थ:
अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी को मैं प्रणाम करता हूँ।व्याख्या : “रुद्र देह तजि नेह वस वानर भे हनुमान”। इसलिए शिवजी के स्थान पर हनुमानजी की स्तुति करते हैं । बालकाण्ड से यह नियम चला है कि रघुनाथजी से पहिले शिवजी की स्तुति ग्रन्थकार करते हैं। पर सुन्दरकाण्ड में शिवजी हनुमान् रूप से सेवक होकर उपस्थित हो गये । अतः यहाँ से स्तुति काक्रम पलट गया : रघुनाथजी की स्तुति पहिले होने लगी ।
इस श्लोक में हनुमत् चरित का बीज है । अतुलित बल धाम से समुद्रोल्लंघन सुरसा आदि का अतिक्रम कहा । स्वर्ण शैलाभदेहं से जानकीजी को भरोसा देना कहा । यथा: “कनक भूधराकार सरीरा समर भयंकर अति बलवीरा। सीता मन भरोस तब भयऊ”। “दनुजवनकृशानुं” से अक्षादि वध तथा लङ्कादाह कहा। “ज्ञानिनामग्रगण्यं” से रावण को उपदेशदान कहा : “सकलगुणनिधानं” से जानकीजी का आशीर्वाद मिलना कहा: “वानराणामधीशं” से बन्दरों की इनके द्वारा प्राणरक्षा कही । रघुपतिवरदूतं से सन्देश कहने की पण्डिताई तथा कहे हुए कार्य से तदविरोधी अधिक कार्यं करना कहा । “वातजातं” से श्रमरहित होना कहा ।
(1)काशी से प्रकाशित पंडित विजयानन्द त्रिपाठी की रामचरितमानस की विजया टीका में “रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि” पाठ दिया हुआ है। #रामचरितमानस #सुन्दरकाण्ड #ramcharitmanas #hinduism #ramayana #sanatana #SanatanaDharma